प्रेम है अपराध कैसे ?

पाप का हो हिसाब कैसे, पुण्य पर प्रतिवाद कैसे,
प्रेम को समझा कलंकित, प्रेम है अपराध कैसे ?
जगत में है प्रेम शास्वत, पूजा और यह प्रार्थना है,
जग नही समझा कभी प्रिय, प्रेम ही आराधना है।
आहत हुई यह भावनाएं, अब करें संवाद कैसे,
प्रेम को समझा कलंकित, प्रेम है अपराध कैसे ?
मन हुआ है अधीर इतना, पीर में हो धीर कैसे,
कलम की हूँ सारथी फिर व्यथा की जंजीर कैसे ?
देखो जर्जर हो गया यह, स्वप्न का प्रासाद कैसे,
प्रेम को समझा कलंकित, प्रेम है अपराध कैसे ?
कर्म को ही धर्म समझा, मर्म हम ना जान पाए।
प्रिय तुम्हारे नेह में अपमान ना पहचान पाए।
प्रेम से अब हो पृथक ख़ुद को करें आज़ाद कैसे,
प्रेम को समझा कलंकित, प्रेम है अपराध कैसे !
सत्य परिलक्षित हुआ तो हृदय भी हुआ विछिप्त।
बुझ उठी लौ प्रेम की जो आत्मा करती थी दीप्त।
छोड़कर हैं चल पड़े पर नित्य ये अवसाद कैसे !
प्रेम को समझा कलंकित, प्रेम है अपराध कैसे !
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।