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2 Nov 2024 · 1 min read

थे जो आलमगीर परिंदे।

थे जो आलमगीर परिंदे।
ले डूबी तक़दीर परिंदे।

पहना दी शहज़ादों ने ही,
लोहे की ज़ंजीर परिंदे।

जिल्लेलाही कहते ख़ुद को,
छोड़ गये जागीर परिंदे।

वक़्त का पहिया घूमा साहब,
कब्र बनीं, ता’मीर परिंदे।

हार चढ़ाकर फूलों का फिर,
लटका दी तस्वीर परिंदे।

नस्लें जो गुमनाम हुईं सब,
अंदर उनके पीर परिंदे।

इतिहास बने पन्नों में जो,
राजा, चोर, वज़ीर परिंदे।

कब तक नादां समझोगे अब,
हाथों में शमशीर परिंदे।

शायद मुश्किल है मिलना अब,
राँझे को वो हीर परिंदे।

यूं मत छोड़ो नाज़ुक दिल पर,
इन लफ़्ज़ों के तीर परिंदे।

खाते नेता जी अनशन में,
खोवा, दूध, पनीर परिंदे।

क्या लूटोगे मुझसे आख़िर,
मैं हूँ एक फ़कीर परिंदे।

पंकज शर्मा “परिंदा”🕊

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