अब जरुरत नहीं कि, फुर्सतें ख़ास लेकर आओ तुम,

अब जरुरत नहीं कि, फुर्सतें ख़ास लेकर आओ तुम,
कि गुफ़्तगू सारी खुद से हीं हो जाती है।
चादरें सुनहरी ख़्वाहिशों की बिछाओ तुम,
कि नींदें थकान ओढ़े, यूँ हीं सो जाती है।
जज्बातों की धनक से, अलाव को जलाओ तुम,
कि सर्द हवाओं की अग्न, लिहाफ़ बनकर लिपट जाती है।
सितारों भरा आसमां, इन आँखों को दिखाओ तुम,
कि उनके टूटने की फ़रियाद, होठों पर थिरक जाती है।
चाय शाम की, मेरे साथ पीकर जाओ तुम,
कि तन्हा प्यालियाँ, मेरे सुकून को बढ़ाती है।
सोये एहसासों को, बेहोशी से जगाओ तुम,
कि इसकी कब्र हीं, मेरी साँसों में होश लाती है।
तितलियों को हथेलियों पर, रिझाकर बिठाओ तुम,
कि जुगनुओं के वैराग्य से, मेरी मुट्ठियाँ जगमगाती हैं।
ठहर जाने की चाहतों से, फिर मिलाओ तुम,
कि सफर क़दमों को, मेरी आशिकी की धुन सुनाती है।