Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
13 May 2024 · 1 min read

ग़ज़ल-क्या समझते हैं !

हमारी हर परेशानी को वो झूठा समझते हैं
इधर हम हैं कि उनके झूठ को सच्चा समझते हैं

हमारी सोच का इस बात से होता है अंदाज़ा
हमें तुम क्या समझते हो तुम्हें हम क्या समझते हैं

ये फ़ितरत है कि रिश्तों में गणित को हम नहीं लाते
तभी हर आदमी से हम सही रिश्ता समझते हैं

सितम ये है कि तुम हो ग़ैर के हमराज़ मुद्दत से
मज़ा ये है तुम्हें हम आज भी अपना समझते हैं

हमारी प्यास में ज्वालामुखी की आग है लेकिन
कहाँ दुख दर्द रेगिस्तान के दरिया समझते हैं

हुक़ूमत ने हमेशा मुल्क़ में शतरंज खेली है
सियासतदान हम सब को फ़कत मोहरा समझते हैं

इन्हें अन्धी तरक़्क़ी के लिए तुम काट देते हो
शजर घर हैं परिंदों के मगर वो क्या समझते हैं

हमारे हौसलों पर आसमाँ भी नाज़ करता है
हमारे पर हर इक परवाज़ को छोटा समझते हैं

Loading...