अवसाद का घेरा

जब व्याकुलता चीखती है, तो भीड़ भी शमशान बन जाती है,
अपनी हीं साँसें स्वयं के लिए, अपमान बन जाती है।
सूरज अन्धकार की कालिमा सा बिखेर जाता है,
अपने नाम की पुकार, खुद के लिए अनजान बन जाती है।
बेड़ियाँ पगों में नहीं, मस्तिष्क पर घेरा डालती है,
शीतल पथ भी पथिक के लिए, अग्निस्नान बन जाती है।
बोझिल गुबार हृदय को, धड़कने से रोकता है,
यूँ अवसाद के दलदल से, स्वयं की पहचान बन जाती है।
जंगल ये कैसा जो, आदि और अंत से परे होता है,
कितना भी निकलना चाहूँ, मस्तिष्क स्वयं के लिए दरबान बन जाती है।
भय की कीलें व्यक्तित्व को, संवेदनशून्य बना डालती हैं,
अविश्वास की डोरी स्वयं हीं, बलवान बन जाती है।
आस्था का दीया कोने में, टिमटिमाता सा फिर मिलता है,
अश्रुओं में डूबी नैय्या तब, निगहबान बन जाती है।
क्रुद्ध तूफ़ान वीरान उस महल की, खिड़कियों को तोड़ता है,
आभास के छींटों में, ज़िन्दगी फिर से मूल्यवान बन जाती है।
भूत की जमीं पर वर्त्तमान की, फसल जब लहलहाती है,
शांत मन के अश्वारोही के लिए, एकांत भी वरदान बन जाती है।