सुलगते हैं ज़ख्म

सुलगते हैं ज़ख़्म ,तेरी बेवफ़ाई के।
किसे सुनाएं किस्से,तेरी बेहयाई के।
रोज़ मेरे ज़ख़्मों को फिर गया कुरेदा
पल पल शब्द बाण से मुझको भेदा।
बात गैरों की नहीं ,बात अपनों की है
टूटते बिखरते मेरे कुछ सपनों की है।
हर शख्स तन्हा , हर लब पे प्यास
हर रूह घायल , हर हंसी है उदास।
कौन लगायें सुलगते ज़ख़्मों पे मरहम।
कैसे समझाए कितने बेबस है हम।
सुरिंदर कौर