ख़ामोश लफ़्ज़ों का शोर
ख़ामोश लफ़्ज़ों का शोर
रात के कोने में बैठे कुछ लफ़्ज़ रो रहे थे,
दीवारों पर परछाइयाँ उन्हें चुप करा रही थीं।
मैंने चाहा कि उन लफ़्ज़ों को आवाज़ दूँ,
पर मेरी ख़ामोशी मेरी ज़ुबान काट चुकी थी।
वो दरवाज़ा अब भी अधखुला था,
जिससे होकर ख़्वाब कभी घर लौटते थे।
पर जाने क्यों, आज उसकी चौखट पर
सिर्फ़ बेजान ख़ामोशियाँ ठहरी थीं।
सवाल पूछता हूँ आईने से हर रोज़,
कि क्या अब भी मैं पहले जैसा हूँ?
आईना हँसता है, चुपचाप रह जाता है,
जैसे उसे मेरा डर समझ आ गया हो।
तुम जो छोड़ गए थे वो अधूरी किताब,
उसका आख़िरी पन्ना अब भी कोरा है।
किसी ने उस पर कोई नाम नहीं लिखा,
क्योंकि शायद… वहाँ सिर्फ़ मेरी मौत लिखी थी।
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