जौ के दाने
है दो मित्र की कहानी
थी जिस पर दरिद्रता की घाव पुरानी।
तंगी- नंगी-भुखमरी के कारण,
चले परदेश बनने को चारण।
या तो अर्थ कमा कर आना है,
या भुखे ही दूर कहीं मर जाना है।
चलते-चलते -चले पूरब की ओर,
बीते कई रातें और कई भोर।
तत्पश्चात मिला तपस्वी एक,
हुई प्रसन्नता दोनों को देख।
हे मुनीश्वर! सुनो विनय हमारी,
है मुझ पर दीन-हीन विपदा भारी,
साधु दिए दो-दो जौ के दाने,
मिटे तुम्हारे दुर्भाग्य पुराने,
स्मरण रहे, रखना इसे संभाल,
फिर दूर होगी विपत-काल,
भविष्य में मैं फिर आऊॅंगा
जौ के दाने लेकर जाऊॅंगा।
दोनों के चित- घट में मंगल छाई
होगी जीवन से ग़रीबी की विदाई।
एक ने लाल कपड़े में बांध बांध कर,
दिया रख संदूक के कोने में जाकर।
दूसरा दिया धरती में गाड़,
सोच समझ कुछ और विचार।
दो से हुए दाने सौ,
सौ से हो गए अनेक जौ।
बोते उपजाते बना छोटा किसान,
किसान से फिर बना धनवान।
धीरे धीरे बीते कई बरस,
पुनः हुआ उन्हीं साधु का भाग्य दरश।
बोले साधु दे दो मुझको मेरा उपहार,
लिया था कभी तुम दोनों ने स्वीकार।
एक संदूक के कोने से निकाली पोटरी,
बन गई थी जौ, जो धूल की गठरी।
दूजा जौ भर कर लाया स्वर्ण परात,
मुनिवर को मिला कर्मठता की सौगात।
स्मिता लिए साधु दिया पार्दर्शी- बोल,
जौ नहीं, कर्म की समझ ही है अनमोल।
उमा झा