सुलभ कांत
///सुलभ कांत///
झरती बरबस दृग जल धार,
आहें अंतर से शुचि बारंबार।
तुम आत्म प्राण श्रृंगार सुधा,
मेरे सद्-संबल जीवन आधार।।
आत्म पर्व यह प्राण पर्व यह,
अरु नाद तेरा नव झंकृत स्वर।
हृदय अन्तर में उठता विमल,
मन प्राण सत्वर जीवन विवर।।
लेकर श्रृंगार तेरा मनुहार मेरा,
निमज्जित अश्रु जल उपहार।
नित्य सुलभ सहचर कांत मेरे,
जीवन प्रहर में उदित साकार।।
अनहद स्वरों की प्रेरणा यह,
आव्हान देकर निज पथ पर।
सिंधु सम तुम वृहद विशाल,
कैसे समाए अंतर में आकर।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)