जाग मनुज
///जाग मनुज///
जाग जाग रे जाग मनुज।।
छल छद्म बंध तोड़ आज।
रहा सिंहासन उर्ध्व विराज।।
सद् विचार सुपंथ स्वकाज।
तो कहां दुर्लभ वह रामराज।।
तू क्यों है किंकर्तव्य विमूढ़।
जान ले जगत रहस्य गूढ़ ।।
सारा भुव कृत कर्म प्रधान,
होता कहां-कुछ प्रारब्ध विधान।।
तेरा कैसा करुण परिहास,
यह कैसा है विश्व विकास।
क्या जग है प्रकाश विहीन,
कैसे देख भोग रहा दुर्दिन।।
हे रम्य प्राण तू दिव्य मनुज,
तू पंक नहीं शुचि पंकज है।
तू विश्व शरण तू आत्मतोष,
तू नीर सुधा शुचि नीरज है।।
तुम परम प्रभा साकार अयुज।
तू जाग जाग रे विमल मनुज।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)