जीवन अनुबंधन
///जीवन अनुबंधन///
अहे! प्राण जीवन अनुबंधन।।
यह कैसा प्रबल विवर्तन,
यह कैसा आत्म परिवर्तन ।
करता नयनों में प्रति नर्तन,
या दृग जालों का संवर्धन।।
यह कैसा जग का स्यंदन।
अहे! प्राण जीवन अनुबंधन।।
तेरे मधुरस का साध्य पुलिन,
यह प्रण प्राण विधा नवीन।
मत हो मत्त अहे! कर्म प्रवीण,
सब कुछ होगा प्रकृति लीन।।
तब क्यों हो यह हृत्कंपन।
अहे! प्राण जीवन अनुबंधन।।
तुम वरद वरा मैं स्वरहीन,
तुम प्राण परा मैं गतिलीन।
सब तेरा कृत पुरातन नवीन,
रे मन क्यों होता वंचनाधीन।।
यह तेरा ही भुक्त अनुवेदन।
अहे! प्राण जीवन अनुबंधन।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)