लिखते हैं।

हर ज़ुल्म-ओ-सितम,
साज बना लिखते हैं।
वो अपने दर्द को,
अंदाज़ बना लिखते हैं।
लगाईं बंदिशें उन्होंने
आंसुओं पे इस कदर,
अपनी हर आह को,
आवाज़ बना लिखते हैं।
वो पहेली हैं उन्हें,
बूझने की कोशिश न कर,
अपने किरदार को,
वो राज़ बना लिखते हैं।
एक तूफ़ां है दबा,
सीने में उनके हमदम,
अपने जज़्बात को,
अल्फ़ाज़ बना लिखते हैं।
शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️