अनुराग द्विविद्या
///अनुराग द्विविधा///
उड़ रही गगन में आज धूल,
उलझ गया चिकुर में एक फूल।
मिल चली उसे वाती अनुकूल,
चल उड़ चल रे तू झीन दुकूल।।
निरभ्र नील गगन का अंचल,
मन क्यों तू होता है चंचल।
निस्सीम गगन सुधा का संबल,
उदयाचल प्राणों का कुंतल।।
यह लिपटे जलसिक्त वसन,
मधु मंजुल उज्जवल तन।
बाणों से बिंध गए क्या प्राण,
मन्मथ को कैसे स्वीकारेगा मुनीमन।।
चिकुर से झरती जलधार,
मन कहता अब बारम्बार।
शकुंतला सी मुनि कन्या,
क्या रह सकेगा मन निर्विकार।।
यह पराग या वह विराग,
फंस गया द्विविधा में अनुराग।
अनवरत चित्त प्राण से उठता ज्वार,
अलि तुम्हें पुष्परज से क्यों वैराग।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)