सुधा प्रसाद
///सुधा प्रसाद///
तुम्हारे नयनों में घिर प्रात,
नीरव स्पंदों में उर गात ।
तुम्हारे ही उद्गारों में कौन,
नित डूबा रहता प्रति-जात।।
तुम्हारा विभु सुधा प्रसाद,
जीवन मर्म अविज्ञात।
चिर संचित निर्याम प्रभा,
तुमसे विभावरी संपात।।
प्राणों से नीरव स्वर,
उठ पडते हैं बारंबार।
होने को दो आत्म एक,
लेकर प्रेम का आधार।।
जैसे विलगित जल बूंदे,
मिल बन जाती गंगाधार।
पोषण करती जगती का,
हराभरा रहता जगसंसार।।
उन लहरों का पावन संसार,
कौन सुनेगा उनके उद्गार।
रवि शशि रश्मि के हृद्-कंपन,
बन जाते हैं जीवन आधार।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)