आत्म दीप की थाह
///आत्म दीप की थाह///तीन
सुमन सहज खिल उठे,
उर अंचल की ज्वाला में।
दीप जला ज्योति जगाने,
प्रभा जगत की आभा में।।१९।।
धूरि-धूरिमय है जग सारा,
स्नेह लसित जीवन प्रतिपग।
सुधा सहज बरसती अविरल,
प्राणों को चिर सनेह पाने में।।२०।।
अलसाई पलकें क्यों मीलित,
नीविड़ रात्रि में दृग झांकें।
चिर सज्जित आशा ही सहज,
जीवन को थामें अनुश्वासें।।२१।।
अमृत मधुता अलिस तरल,
प्रिय प्रेम सुधा सरसाने दे।
अलि दृगों को रम जाने दे,
मृदु मग जीवन लहराने दे।।२२।।
तेरी आशा मेरे उर की व्यथा,
प्राण पुलक दृग सुंदर सरसा।
मधुप विटप से मधु सुदंर,
सहज मधु मलय बन जाने दे।।२३।।
रश्मि रज्जु की चिर आरोही,
उरु अंचल में प्राण अवरोही।
क्षण पलक सरस झपकते,
प्रिय व्रत लिए आ जाने दे।।२४।।
ना माने यह मेरा अन्तर,
अनुताप धनु विश्व गगन चर।
सुंदर आलापों में मुकुल नव,
दृग गातों का प्रिय रश्मिकर।।२५।।
प्रिय के प्राणों में नित्य,
मुझे सहज खो जाने दे।
प्राणों के प्राण सुधा हित,
बन असीम समा जाने दे।।२६।।
प्रिय प्राणों के प्राण चितेरे,
मधु पुष्पों के अलिक घनेरे।
प्रिय व्रत पा सहज पथ पर ,
नद सरिता सम बह जाने दे।।२७।।
प्रिय अन्तरतम पाने दे।।।
* समाप्त*
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)