Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
19 Jul 2019 · 1 min read

नकाबे

आ मिलकर ढूंढें
एक नया अहसास
अपनी नकाबे उतारकर
शक्लें बदली सी होंगी
पर घबरा मत
यही हैं असली अक्स अपने
बस परतें उतरी हैं

झिझक मत
सब कह डाल
सोचों को कपड़े मत पहना
उन्हें खुली हवा में यूँही आने दे
जैसे पैदा हुई हैं
देखे तो सही
रूहों के बंद कमरों मे
किस कदर सीलन
भर आईं है

हम सहमते हैं
अपने विचारों से
असली चेहरों से
डर है कहीं
बाहर निककते ही
सबकुछ बिखर न जाये
जो इतने अरसे से
संजो का रखा है

अब तो आदत भी
पड़ गयी है मुखोटों की
यही ठीक भी लगता है
आप हम और ये नकाबे
सब कुछ सुरक्षित सा

अपने अपने दायरों मे कैद
छटपटाते और घुटते अभिव्यक्ति को
पर शब्द हलक ही में अटक कर
रह जाते हैं
और निकलता है कुछ
यूँ ही बेवजह माकूल सा

सुप्त कामनाओं की घुटन
दिख ही जाती है
यदा कदा
चेहरे की शिकनो पर
अनमने भावों में
और ललचायी नज़रों में

फिर सब कुछ शांत सा
बस उबालना जारी है
धीमी आंच पर

क्या इस सच को दिखा
पाओगे नंगे होकर
या ढोते रहोगे
इस अनकही सी
कशमकश को?

Loading...