उस पूल का अस्तित्व किसे लुभाता है,

उस पूल का अस्तित्व किसे लुभाता है,
जो किनारों को नहीं जोड़ पाता है,
ना गुजरती है कोई नदी उसके नीचे से,
ना कोई रेल उसके ऊपर खड़खड़ाता है।
बेचैनियां समेटे तन्हा खड़ा सा वो,
अब तो उमीदों के दरवाजे भी नहीं खटखटाता है।
कुछ क़दमों ने निशान छोड़ रखे हैं जो,
अपनी खामोशी में बस उन्हें हीं सहलाता है।
ठहरती हवाओं से दिल उसका लग जाता है,
पर चुभती निगाहों से वो बच कहाँ पाता है।
कभी आवारगी का घर वो कहलाता है,
कभी माशुकी को अपने हिस्सों में छुपाता है।
बेख्याली में खुद को ढहाता सा वो,
किनारों की तलाश में साँसों को तड़पाता है।
जो ना मिलता है खुद से ना हीं बिछड़ पाता है,
विध्वंस्ता का सबब बनकर अपनी जीर्णता पर मुस्कुराता है।