विलग साथी
///विलग साथी///
मैं ढूंढ रही उसे निर्जन वन में,
क्या मिल सकेगा वह उपवन में।
है संचित जल थल और गगन में,
तब कैसे पाऊंगी जग आंगन में।।
क्या वह मेरे अंतर्मन का साथी है,
क्या वह मेरे सुख-दुख की वाती है।
वह है परे इन सब जग आयामों से,
सकल जीवन प्रवाह का संजाती है।।
सदा दिखता है परिवास जगत में,
बताओ वह कौन देश का वासी है।
या अनंत काल से साक्षी अब तक,
क्यों गृह हीन सदा सदा प्रवासी है।।
कैसा वह है वासी भी प्रवासी भी,
है परे यहां से या व्याप्त राशि भी।
है वह रूप राशि असीम आभा में,
प्रज्ञा रूप विलग भी है साथी भी।।
कितना संभ्रम है अस्तित्व तुम्हारा,
जगत परा समझ समझ कर हारी।
तब कैसे होगा मिलन मैं निरुपाय ,
आत्म मन जीवन से अर्पित सारी।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट(मध्य प्रदेश)