मौन
जैसे, तुम्हारा टूटना
पतझड़ में सूखी पत्तियों का ढ़ेर
पके बाल, सफ़ेद, स्थूलकाय का होना
आदमी हैं। यह टूटना
याद दिलाता मशक्कत करता
किसान
मेढ़ पर बैठा उम्मीद।
जहाँ-तहाँ आम के डालियों में
मंज़री आना
शादी का लगन भी है, सुनाई दे रही है
निमंत्रण नहीं है इसलिए मैं तुम्हें पढ़ता हूँ कविता { शमशेर बहादुर सिंह की कविता :- शीर्षक ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ कविता }
पर मैं चुप हूँ, चुप रहना ही मेरा परिचय है। टूटना।
स्नातक पूर्ण होने को तीन महिने बचे हैं, दस रोज़ के एक दिन बाद भी इम्तिहान है, इसलिए यहाँ हूँ
तीन दिवसीय स्पंदन कार्यक्रम यहाँ हो रहें हैं। सभी में वसंत हैं।
पर मैं टूट रहा हूँ…।
मेरा परिचय टूटना है
काशी का होना
बिड़ला ‘अ’ हॉस्टल की 135 रूम नंबर की चारदीवारी
मुझे कौंध रही है, डरा रही है
खौफनाक है, कल का नोटिफिकेशन देता है
पर मैं तटस्थ हूँ
देव मिश्रा यहाँ नहीं है
सहपाठी प्रकाश मित्र भी यहाँ नहीं है
गया है किसी का जन्मदिन मनाने बिड़ला ‘अ’ चौराहे पर
पर मैं यहाँ हूँ
अपने रूम के चारदीवारियों में।
मुझे किसान होना अधिक प्रिय है
आदमी। टूटना। वसंत!
दो रोज़ पहले रात्रि चार बजे प्रांगण में पीपल के पास
तीन पिल्ले की मौत!
छटपटाहट। निस्तब्ध।
मौन।
जो कि मेरा प्रिय था।
वरुण सिंह गौतम