कभी-कभी सब खत्म होने के बाद ही एक नई शुरुआत होती है, शायद यह

कभी-कभी सब खत्म होने के बाद ही एक नई शुरुआत होती है, शायद यही उस शुरुआत की नियति होती है।
कभी-कभी सब जानते समझते हुए भी अनजान बनना होता है, कुछ न जानने का दिखावा करना होता है, क्योंकि वह जरूरी लगता है, रिश्ते के लिए और उस रिश्ते से जुड़े लोगों के लिए।
कभी-कभी चोट लगने के बाद, खूब तकलीफ पहुंचने के बाद भी हमें लोगों को माफ करना होता है! असल में यह माफी हम उन्हें नहीं बल्कि खुद को दे रहे होते हैं, फालतू के बोझ से खुद को आजाद कर रहे होते हैं। हाँ हमें सामने वाले पर फिर से भरोसा नहीं करना है, एक दूरी बनाकर रखनी है, लेकिन कड़वाहट (नफरत) नहीं रखनी है वर्ना एक वक्त के बाद हम अपराधबोध से भर जाएंगे, खुद को खुद की ही नज़रों में गलत देखेंगे। ऐसा नहीं भी हुआ, फिर भी सोचने में बहुत सा वक्त जाएगा, मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होगा।
कई बार हम किसी ऐसे रिश्ते में भी फंस जाते हैं, जहां ना उतना सम्मान मिलता है और ना ही अपनापन, फिर भी उसे छोड़ नहीं पाते, सिर्फ एक विकल्प होता है उसे निभाना। बेशक निभाना जरूरी हो जाता है, लेकिन हमें सामने वाले से कोई उम्मीद नहीं रखनी है, सिर्फ अपनी कोशिश करनी है। यकीन मानों इसमें भी कोई बुराई नहीं, हम अपना फर्ज ठीक से निभा रहे हैं ना? बस यही मायने रखता है।
हाँ बात अगर आत्मसम्मान पर आ जाए, तो कदम पीछे खिंचने में कोई बुराई नहीं, क्योंकि ऐसे रिश्ते में भी बंधे रहने का कोई मतलब नहीं जहां कोशिशें एकतरफ़ा हों, आपसी लगाव, सम्मान, भरोसा बिल्कुल ना हो, ईमानदारी तक ना हो।