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18 May 2024 · 1 min read

#लघुकथा

#लघुकथा
■ जन्मसिद्ध अधिकार…
【प्रणय प्रभात】
आज नागराज भरपूर गुस्से में थे। कभी फन फैलाते, कभी नीचे पटकते। नागमती रह-रह कर फुसकार भर रही थी। संपोला और संपोली भी दम लगा कर नाराज़गी का इज़हार कर रहे थे।
पूछताछ करने पर पता चला कि किसी ने उनके अपनों के कुछ अंडे फोड़ डाले। कुछ के फन भी कुचल दिए। उन सब का गुस्सा बेशक़ जायज़ लग रहा था। बावजूद इसके उन अक़्ल के मारों से यह कौन पूछता कि इसी तरह की करतूतें वो भी तो करते आ रहे हैं अरसे से। अपनी महान आदत और जन्मसिद्ध अधिकार समझ कर।
काश, यह क्रोध और ग्लानि उन्हें पक्षियों के अंडे निगलने और दूसरों को डंसने पर भी होती। जो शायद उनकी संस्कृति के मुताबिक मुमकिन ही नहीं थी।।
★संपादक★
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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