पुरुषों के पास मायका नहीं होता, ना कोई ऐसा आँगन, जहाँ वे निः

पुरुषों के पास मायका नहीं होता, ना कोई ऐसा आँगन, जहाँ वे निःसंकोच लौट सकें, जहाँ कोई माथा चूमकर कहे-“थक गए हो न? थोड़ा आराम कर लो…”
वे चलते रहते हैं निरंतर, एक पुत्र, एक पति, एक पिता बनकर, अपने कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ लिए, पर कभी खुद के लिए ठहर नहीं पाते..!
कभी मन भारी हो तो कहाँ जाएँ? ना कोई गोद जहाँ सिर रखकर सिसक सकें, ना कोई दीवार जहाँ अपना दिल टिका सकें..! क्योंकि उन्हें बचपन से सिखाया गया है- “मर्द बनो, मजबूत रहो..!!”
पर क्या मजबूत होने का अर्थ अपनी भावनाओं को मार देना है? क्या रो लेना सिर्फ़ औरतों का हक़ है?
काश, समाज समझ पाता कि पुरुष भी इंसान होते हैं, कि उनके भी दिल धड़कते हैं, कि उन्हें भी कभी-कभी सिर्फ़ एक एक प्यार भरी थपकी चाहिए होती है, जो कह “कोई बात नहीं, मैं हूँ न..!!”