वफ़ा को तुम हमारी और कोई नाम मत देना
अच्छी यादें सम्भाल कर रखा कीजिए
क्या दें उसे गुलाब जो खुद ही गुलाब है
मेरी नज़र में वो मुहब्बत भी कुछ न थी,
हिंदी हमारी मातृभाषा है जबकि हमने हिंदी बोलना माँ से सिखा ही
चुरा लो हसीन लम्हो को उम्र से, जिम्मेदारियां मोहलत कब देती ह
कपड़ों की तरहां मैं, दिलदार बदलता हूँ
तेरे उल्फत की नदी पर मैंने यूंँ साहिल रखा।
बारिश की बूंदें जब थिरकतीं,
brown in his eyes reminds me of those morning skies
उतर गए निगाह से वे लोग भी पुराने
*बातें कुछ लच्छेदार करो, खुश रहो मुस्कुराना सीखो (राधेश्यामी
बहुत दिनों के बाद मिले हैं हम दोनों
ग़ज़ल
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
वह कुछ करता है तो सुनाता बहुत है
रात का तो है बस मुहँ काला।