सत्य की राह

सत्य की राह
मैं खोज रहा था सत्य को,
सूखे पत्तों की सरसराहट में,
गंगा की लहरों के सुरों में,
घाटों की आरतियों की ध्वनि में।
कभी पर्वतों की चोटी पर,
तो कभी वन की नीरवता में,
जहाँ ऋषियों के मंत्र गूँजते थे,
जहाँ शून्य भी उत्तर देता था।
पर सत्य तो चंचल हिरण सा,
हर बार मुझसे दूर भागा,
मैंने वेदों में उसे खोजा,
मैंने उपनिषदों से पूछा—
“क्या यही अंतिम प्रकाश है?”
हवा के झोंकों ने उत्तर दिया—
“सत्य कोई शब्द नहीं,
वह अनुभव है, साक्षात्कार है।”
मैं लौटा अपने ही भीतर,
जहाँ न कोई प्रश्न था, न संदेह,
बस मौन था—
और उसी मौन में,
मुझे सत्य मिल गया।
— lokesh kumar