हे गृहस्थ..!

हे गृहस्थ !
(छंदमुक्त काव्य)
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हे गृहस्थ !
मन मलीन क्यों है तेरा,
नस खींचना नहीं है तुझे
नागा साधुओं की तरह ,
और न ही जीते जी पिंडदान ही करना है तुझे ,
सृजन के उद्गम स्रोत को
क्यों तिरस्कृत करना है भला,
हठयोगी की तरह !
गृहस्थी एक रणक्षेत्र है कर्मयोग का
पुरुषार्थ कर कर्मयोगी की तरह ,
मानव जीवन के चार विभागों में
दूसरा सबसे मजबूत आधार स्तंभ है यह
” गृहस्थाश्रम ”
भाग मत, कर्म करता चल
पाप-पुण्य लपेटे हुए ,
सब अर्पित कर दे प्रभु चरणों में
हे प्रभु ! पाप भी तेरा, पुण्य भी तेरा
यश भी तेरा अपयश भी तेरा,
बस एक बात याद रख _
मेरे ही अस्तित्व को ही कोई खुली चुनौती न दे
ये मुझे अग्राह्य है
याद रख, धर्म लोप की दशा में
मेरे माथे पर बल पड़ जाता है,
भृकुटियां तन जाती है
तीसरा नेत्र खुलने को आतुर
शरीर तांडव करने की मुद्रा में
कम्पायमान होने लगता है,
फिर मेरा रौद्र रूप
संहार से ही अपना श्रृंगार करता
उथल-पुथल मचा देता सकल संसार को,
नजरें तो डाल अपने चारों ओर _
प्रकृति का स्वच्छंद स्वरुप
जीवनोदक अनुपम अद्भुत
पर रास नहीं आता इन मुटियारों को,
घर-आंगन, वन-उपवन
सब उजाड़ करने पर तुलें हैं ,
ये रक्त पिपासु जिह्वा लेकर
बेजुबानों के करुण क्रंदन भावों को लपेटे
स्थूल देह के मांस ऊत्तकों से
अपनी क्षुधा को मिटाते है या बढ़ा लेते है,
ये मुझे समझ नहीं आता_
आधुनिकता की आड़ में ,
दैहिक सृजन तंत्र की गरिमा को भी
ये ताड़-ताड़ करने पर तुले हूए हैं ,
धर्मानुकूल कुछ भी नहीं हो रहा
ये तो रिश्तों की परिभाषाएं भी
खत्म करने पर तुले हैं,
मानस पटल में विद्यमान
चेतना को नवजागृत करने का
जागरण उद्घोष करना होगा ,
वानप्रस्थ का ये मतलब नहीं कि
वन को चला जा और
दुनिया से नाता तोड़ ले,
वानप्रस्थ का ये मतलब है
रह तू , गृहस्थ में ही और
और सभी सांसारिक ईच्छाओं से,
अपने मन को पृथक करने का अभ्यास कर ,
सही ज्ञान की तलाश में_
कोलाहल और भीड़भाड़ से दूर
मन स्थिरचित्त होकर परमतत्व प्राप्त कर लेगा ,
नहीं तो जीवन चक्र की पुनरावृति होती रहेंगी,
और तू भटकता फिरेगा _
चौरासी लाख योनियों में…
बस सनातन के इन्हीं गूढ़ रहस्यों को तो ,
बताना है तुझे
क्रमशः …
पीढ़ी दर पीढ़ी …
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २५/०१/२०२५
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विक्रम संवत २०८१
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