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20 Oct 2024 · 10 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: कृति कथा(प्राचार्या की यात्रा)
लेखिका: डॉक्टर सुचेत गोइंदी
118, दरभंगा कैसिल, इलाहाबाद
फोन 9452 69 3965
द्वितीय संस्करण: 2018
प्रकाशक: सरदार भगवान सिंह गोइंदी सेवा संस्थान इलाहाबाद
मूल्य: 250 रुपए
पृष्ठ संख्या: 27 7
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समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश 244901
मोबाइल/व्हाट्सएप
9997615 451
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स्वर्गीय डॉ. सुचेत गोइंदी और राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर के प्रारंभिक पंद्रह वर्ष (1976-1991)
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कृति है राजकीय महिला महाविद्यालय रामपुर और कथा है उस महाविद्यालय के प्रारंभ से लेकर पंद्रह वर्षों तक की उसके प्राचार्य की यात्रा।

यह यात्रा छुटपुट रूप से किसी-किसी की स्मृतियों में जीवित भी रह जाती, लेकिन दो सौ सतत्तर पृष्ठों में सारी स्मृतियों को प्राचार्या डॉक्टर सुचेत गोइंदी ने जिस जादुई कलम से लिपिबद्ध कर दिया, वह इतिहास में अमर हो गईं । जिन लोगों ने भी गोइंदी जी को देखा है, वह जानते हैं कि अत्यंत साधारण खादी की धोती पहने हुए वह एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली विदुषी के रूप में रामपुर के सार्वजनिक जीवन में सबके सामने आईं । उनके आगमन से रामपुर का वैचारिक परिदृश्य कुछ महान जीवन मूल्यों के साथ समृद्ध हुआ। अनुशासन के प्रति तो उनकी प्रतिबद्धता थी ही और वह उनके भाव-भाव और व्यवहार से भी झलकता था; इसके साथ-साथ लक्ष्य की पूर्ति के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाने का भाव भी उनके भीतर था। लेकिन इसके लिए वह गांधी जी के सत्य के आग्रह की टेक को छोड़ने के लिए कभी राजी नहीं हुईं । साध्य के साथ-साथ साधन की शुद्धता पर भी उनका जोर था। शॉर्टकट से सफलता पाने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। इसीलिए तो वह महिला महाविद्यालय के माध्यम से बहुत ऊंचे दर्जे के संस्कार हजारों छात्राओं को दे पाईं और हजारों रामपुर वासियों के मन में अपने लिए एक विशेष श्रद्धा और आदर का भाव उत्पन्न करने में भी सफल रहीं।

19 सितंबर 1937 को आपका पाकिस्तान में जन्म हुआ तथा भारत विभाजन के बाद आप अपने परिवार जनों के साथ इलाहाबाद आ गईं । आपके पिता सरदार भगवान सिंह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के सेनानी थे। पिता के पदचिन्हों पर आपने आजीवन खादी पहनने का व्रत लिया तथा गांधी जी की सत्य और अहिंसा की राष्ट्रीय चेतना को अपने मन में बसा लिया।

1964 में काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रवक्ता नियुक्त हुईं और फिर 1976 में आपको एक अत्यंत ‘गतिशील अनुशासित व्यक्तित्व’ के रूप में ऑंकते हुए शिक्षा सचिव ने रामपुर में उत्तर प्रदेश के सर्वप्रथम शासकीय महिला महाविद्यालय के प्राचार्य का दायित्व सौंपा। आपने इस चुनौती को स्वीकार किया। चुनौती भी छोटी-मोटी नहीं।

महाविद्यालय भवन की दर्दशा
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एक अगस्त को इलाहाबाद से चलकर दो अगस्त की सुबह रामपुर पहुंचीं और तीन अगस्त को महाविद्यालय का उद्घाटन होना था। स्थिति यह थी कि महाविद्यालय में न कोई प्रवक्ता था, न क्लर्क, न चपरासी। सिर्फ प्राचार्या के रूप में गोइंदी जी थीं।

मछली भवन की हालत यह थी कि डॉक्टर गोइंदी जी के शब्दों में- “आधी लटकी- आधी गिरी छतें, जंग खाए फाल्स सीलिंग, बदरंग दीवारें, जगह-जगह टूटी-फूटी प्लास्टर ऑफ पेरिस की नक्काशीदार मलिन दीवारें और कमरों में भरे हुए कूड़े के ढेर, छह फीट तक की ऊॅंची घासें, सीलन और सड़ॉंध से भरा हुआ संगमरमर का तालाब, कहां तक याद करूं! कुल मिलाकर आदमी, वक्त और मौसम की मार खाया हुआ मंजर” (पृष्ठ 219)

चंद्रावती तिवारी का नाम जुड़ा, फिर हटा
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महाविद्यालय के नाम के साथ चंद्रावती तिवारी का नाम कुछ समय तक जुड़ा। यह तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की माता जी का नाम था। गोइंदी जी ने पुस्तक में बताया है कि चंद्रावती तिवारी का नाम जोड़ने का प्रस्ताव दो स्थानीय राजनेताओं ने सभा में रखा था। तत्पश्चात जो कुछ हुआ, उसका आंखों देखा हाल सुनाते हुए गोइंदी जी लिखती हैं:

माननीय मुख्यमंत्री जी उठे। नम आंखों से देखते हुए रूंधे-से गले से बोले, मेरी माता के नाम पर मैं कुछ आपत्ति नहीं कर सकता। यह भावनाओं का सवाल है। मैं रामपुर की जनता की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। इसलिए इस नाम की स्वीकृति दे रहा हूं।” (प्रष्ठ 12)

उपरोक्त वर्णन जिस तरह चटकारे लेते हुए लेखिका ने लिखा है, वह हास्य-व्यंग्य शैली का एक अच्छा नमूना है।

कई महीने तक राजकीय महिला महाविद्यालय के बोर्ड पर चंद्रावती तिवारी नाम नहीं जुड़ा।अंततः 6 दिसंबर 1976 को शिक्षा सचिव ने राजाज्ञा में चंद्रावती तिवारी का नाम जुड़ने वाली बात जब गोइंदी जी को बताई तो तत्काल गोइंदी जी ने पेंटर को बुलाकर यह नाम जुड़वाया। मगर कुछ ही महीने के बाद 1977 में सरकार बदल गई। ‘चंद्रावती तिवारी’ नाम हटाने के संबंध में नई राजाज्ञा आई। गोइंदी जी ने फिर से पेंटर बुलाया। ‘चंद्रावती तिवारी’ नाम बोर्ड से हटवा दिया। तब से करीब पचास साल होने को हैं ,महाविद्यालय के नाम से पहले कोई नाम नहीं है।

आपातकाल में एकमात्र निर्भीक प्राचार्या
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गोइंदी जी आपातकाल में प्राचार्या बनकर आई थीं, लेकिन अपनी शर्तों पर ही उन्हें यह पद मंजूर था। जब उनसे किसी ने कहा कि माहौल को देखते हुए आप आपातकाल की भी कुछ प्रशंसा कर दें। तब उनका उत्तर था कि प्राचार्या रहूं न रहूं, लेकिन आपातकाल की प्रशंसा नहीं करूंगी। वास्तव में वह लोकतंत्र सेनानी परिवार से थीं । उनकी बड़ी बहन आपातकाल का विरोध करने के कारण जेल में बंद थीं।

इसी तरह जब नसबंदी के मामले में महाविद्यालय की प्रवक्ताओं के द्वारा नसबंदी के केस लाने को लेकर एक मीटिंग हुई, तब उन्होंने उस मीटिंग में हालांकि छोटे परिवार की अवधारणा से सहमति व्यक्त की लेकिन इस बात का विरोध किया कि प्रवक्ताओं को जबरन नसबंदी के केस लाने के लिए आदेशित किया जाए। इस बात पर उनके प्रति सहानुभूति रखने वाली एक अन्य प्राचार्या ने उन्हें समझाया कि सरकारी नीतियों का विरोध करने पर मीसा में बंद हो सकती हो? तब उन्होंने कहा कि एक बहन बंद है, दोनों साथ-साथ जेल में रहेंगे। (प्रष्ठ 50)

खादी के प्रति उनकी आस्था इतनी बलवती थी कि जब 3 अगस्त 1976 को वह नवाब साहब के यहां एक शादी में गईं और उन्हें रेशमी रुमाल में मिठाई दी गई तो उन्होंने लेने से यह कहकर मना कर दिया कि मैं चीनी से बनी मिठाई नहीं खाती। अपनी आत्मकथा में वह लिखती हैं कि बात दरअसल यह थी कि अपने हाथ में मिल का बना रेशमी रुमाल मुझे कुछ ठीक नहीं जॅंचा था।(पृष्ठ तेरह)

प्राचार्या के पद पर बैठकर भी काम करते समय वह लोकतंत्र सेनानी ही थीं । शासन के आदेश थे कि सरकारी कार्यालय में इंदिरा गांधी का फोटो लगाया जाए, लेकिन गोइंदी जी ने महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी के ही फोटो लगवाए। जब आपातकाल हटा और ऊपर से दूसरा आदेश आया कि इंदिरा गांधी के फोटो कार्यालय से हटा दिए जाएं; तब उन्होंने आदेश का उत्तर देते हुए यह लिखवाया कि हमारे कार्यालय में कभी भी इंदिरा गांधी का फोटो नहीं लगा, अतः हटाने का प्रश्न ही नहीं होता। (प्रष्ठ 54)

मछली भवन खाली कराया
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मछली भवन में अनेक सरकारी दफ्तर थे तथा अनेक सरकारी अधिकारी वहां रहते थे। कोई भी खाली करने के लिए तैयार नहीं था। गोइंदी जी ने जिलाधिकारी के पास दौड़-धूप करके किसी तरह भवनों को खाली करवाने का काम किया। यह आसानी से नहीं हुआ। जब जिला अधिकारी को यह कहना पड़ा कि मैं ताला तोड़कर प्रिंसिपल साहब को कब्जा दे दूंगा, तब काम चला। (पृष्ठ 17)

मछली भवन खाली करके जाने वाले लोगों में से अधिकांश ने भवन में लगी हुई पीतल की टोटियॉं और दरवाजों के कुंडे तक निकल लिए थे। (प्रष्ठ 21)

दरी पर पढ़ाई
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23 अगस्त को दरी पर छात्राओं को बिठाकर डिग्री कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई । फर्नीचर के अभाव में कार्य कैसे टाला जाता ? छात्राओं और उनके अभिभावकों में गोइंदी जी ने अभूतपूर्व जागृति पैदा कर दी थी। पर्दा प्रथा के कारण छात्राएं सहशिक्षा वाले डिग्री कॉलेज में जाने में असमर्थ थीं । महिला महाविद्यालय ने उनके लिए उच्च शिक्षा के द्वार खोल दिए थे। (प्रष्ठ 26)

गोइंदी जी की जगह कोई दूसरी प्राचार्या आती तो शायद डिग्री कॉलेज शुरू ही नहीं होता। बिना राजाज्ञा के 130 छात्राओं के दाखिले ले लिए गए।

कभी सख्ती, कभी नरमी
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बार-बार की लिखापढ़ी के बाद बड़ी मुश्किल से जाकर दस हजार रुपए की धनराशि 10 मार्च 1977 को मछली भवन के पुनरुद्धार के लिए आई। इतने कम रुपयों में कोई ठेकेदार काम करने को तैयार नहीं था। लंबी भाग दौड़ के बाद जो विभागीय ठेकेदार अंत में आया, उससे थक हार कर गोइंदी जी ने प्रार्थना की कि महाविद्यालय भवन के पुनरुद्धार का कार्य मंदिर-मस्जिद का निर्माण समझ कर ही कर दीजिए। ठेकेदार की समझ में बात आ गई। उसने जैसा गोइंदी जी चाहती थीं, वैसा ही कार्य मात्र दस हजार रुपए में कर दिया। मछली भवन चमक उठा।
इस तरह कुछ सख्ती कुछ नरमी से काम निकलवाते हुए महाविद्यालय दूसरे वर्ष में जाकर निखर पाया।

छात्राओं में बहुमुखी चेतना का जागरण
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गोइंदी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेवा योजना केवल खानापूर्ति के लिए नहीं हुई, बाकायदा छात्राएं 10 दिन और 10 रात तक गांव में ठहरती थीं । वहां सफाई किया करती थीं , कीचड़ हटती थीं , रास्ते बनाती थीं, नालियों का निर्माण करती थीं । गोइंदी जी प्रयास करके जिलाधिकारियों को भी राष्ट्रीय सेवा योजना के कैंप में लेकर जाती थीं । इससे छात्राओं को भी अतिरिक्त सुरक्षा मिल जाती थी तथा ग्रामीण समाज में भी विशेष चेतना आती थी। एक अन्य उपलब्धि ग्रामीण कैंपों में हिंदू और मुसलमान दोनों प्रकार की छात्राओं के भाग लेने से सर्वधर्म समभाव का विकास था। गोइंदी जी ने सब धर्मों की प्रार्थनाएं शिविर के कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बना दिया। इस तरह धर्मनिरपेक्षता एक जीते-जागते उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय सेवा योजना में साकार हो गई।

अनुशासन को सर्वोपरि महत्व
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अनुशासन की दृष्टि से उन्होंने विद्यालय का माहौल पूरी तरह पढ़ाई को समर्पित कर दिया था। नकल विहीन परीक्षा उनके महाविद्यालय की विशेषता बन गई । किसी प्रकार का हुड़दंग महाविद्यालय के भीतर से तो शुरू होने का प्रश्न ही नहीं था। बाहर से भी जब हड़ताली लड़कों की भीड़ आती थी तो निर्भयता के साथ सुचेत गोइंदी जी भीड़ के सामने खड़ी हो जाती थीं । उनके सत्य की तेजस्विता से दीप्त आभामंडल के सामने किसी हुड़दंगी की कभी नहीं चल पाई।
आमतौर पर स्थानीय नेता उचित अनुचित सब प्रकार की सिफारिशें तथा दबाव आदि महाविद्यालय प्रशासन पर डालते रहते हैं । लेकिन यह गोइंदी जी के भीतर सत्य का बल ही था कि उन्होंने अत्यंत शालीनता पूर्वक किंतु दृढ़ता से सच्चाई के रास्ते पर चलने का अपना संकल्प स्थानीय राजनीति के प्रत्येक स्तंभ तक पहुंचा दिया। सरकारें बदलीं ,लेकिन गोइंदी जी और उनका महाविद्यालय बिना किसी सिफारिश अथवा पक्षपात के नियमानुसार काम करता रहा। यह छोटी उपलब्धि नहीं थी।

शिक्षिकाओं ने भी खादी पहनी
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महाविद्यालय की शिक्षिकाओं में उन्होंने 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को गांधी जी के जन्मदिन और बलिदान दिवस के साथ जुड़े होने के कारण यह नियम बना दिया कि वह हर महीने की 2 तारीख तथा 30 तारीख को खादी के वस्त्र अवश्य पहनेंगी। यह नियम स्वेच्छा के आधार पर था, लेकिन सबने इसे स्वीकार किया।

दो पुरानी बसें
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महिला महाविद्यालय को जब मछली भवन मिला था, तब दो पुरानी बड़ी बसें एक प्रकार से मलवे के रूप में प्रांगण में पड़ी थीं। सरकारी कामों में बड़ी मुश्किल यह रहती है कि किसी सामान को फेंक भी नहीं सकते। वह ऐसे ही पड़ा रहता है। पुरानी बसों के साथ भी यही हुआ। लेकिन जब 1986 में उड़ीसा के राज्यपाल विशंभर नाथ पांडेय का महाविद्यालय पधारने का कार्यक्रम बना, तब मौके का फायदा उठाकर चतुराई पूर्वक गोइंदी जी ने पुरानी पड़ी बसों के मलवे को सुरक्षा व्यवस्था के साथ जोड़ दिया। परिणामत: वह मलवा महाविद्यालय प्रांगण से हट गया।

महापुरुषों के व्याख्यान
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अपने कार्यकाल में गोइंदी जी ने अनेक विभूतियों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। इनमें कविवर डॉक्टर शिवमंगल सिंह सुमन, इतिहासविद् विशंभर नाथ पांडेय तथा महात्मा गांधी की पौत्री तारा भट्टाचार्य के नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं। महाविद्यालय की प्रवक्ताओं को उन्होंने मार्गदर्शन देते हुए अनेक प्रकार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के योग्य बनाया।

रामपुर से स्थानांतरण
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पंद्रह वर्ष तक प्राचार्या के रूप में महिला महाविद्यालय में कार्य करने के बाद जब उनका स्थानांतरण शिक्षा सेवा आयोग में हुआ, तब रामपुर निवासियों के लिए यह एक बहन, बेटी और मॉं से बिछुड़ने का मार्मिक क्षण था। नया पद वैसे तो बड़ा था। लेकिन पूर्व शिक्षा निदेशक उच्च शिक्षा उत्तर प्रदेश प्रोफेसर बालचंद ने बिल्कुल सही लिखा है कि यह गोइंदी जी की कर्मठता और शैक्षणिक गुणात्मकता बनाए रखने की उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए बहुत संकुचित दायरा माना जाना चाहिए। (प्रष्ठ 266)

आत्मीयता का बड़ा दायरा

उन्होंने जिस प्रकार से मछली भवन का कायाकल्प करके उसे उच्च शिक्षा के एक साफ सुथरे संस्थान में परिवर्तित किया, उससे प्रसन्न होकर राजमाता रफत जमानी बेगम ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की थी। अनेक कार्यक्रमों में गोइंदी जी उनको आमंत्रित करती थीं और राजमाता खुशी-खुशी आती थीं ।

रामपुर में पंद्रह वर्षों में सैकड़ों की संख्या में गोइंदी जी के प्रशंसक हुए, लेकिन गोइंदी जी जिनकी सबसे अधिक प्रशंसक बनीं, वह रामपुर रजा लाइब्रेरी के संचालक मौलाना अर्शी साहब थे।

पुस्तक में गोइंदी जी ने रामपुर निवासी श्री रघुवीर शरण दिवाकर राही, श्रीमती प्रेम कुमारी दिवाकर, श्रीमती निश्चल आर्य, श्रीमती निर्मल जैन, श्रीमती अच्छी बेगम, श्री गिरीश अग्रवाल, स्वर्गीय कलावती अग्रवाल, शहनाज रहमान तथा श्री रमेश जैन का भी आत्मीयता से स्मरण किया है।

उपसंहार
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पुस्तक में आदि से अंत तक गहरा कथा-रस है। निबंध की प्रवृत्ति कहीं भी देखने में नहीं आती। पाठकों को उपन्यास-सा पढ़ने में आनंद मिलेगा। समूची पुस्तक में ऐसा लगता रहा कि मानो लेखिका सामने बैठकर एक के बाद एक किस्सा सुना रही हों। अथवा यों कहिए कि कथा-यात्रा में पाठक और लेखिका एक साथ चल रहे हों । किसी भी महापुरुष से सबसे अच्छी मुलाकात उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही होती है। एक प्राचार्या की यात्रा के रूप में कृति-कथा डॉ. सुचेत गोइंदी जी से उनके हृदय में बैठकर की जाने वाली यात्रा रही। हमारा सौभाग्य ! ऐसे लोग अब कहॉं हैं । लगता है, मानो साबरमती के आश्रम से गॉंधी जी की कोई शिष्या विधाता के वरदान रूप में रामपुर निवासियों को पंद्रह वर्ष के लिए उपलब्ध हुई हों।
मछली भवन में राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय का शुभारंभ रामपुर के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। इस दृष्टि से ‘कृति कथा’ (प्राचार्या की यात्रा) पठनीय पुस्तक है।

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