शीर्षक – अपने घर…

शीर्षक – अपने घर..
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अपने घर से दर बदर होते हैं।
अपने ही पराएं बन जाते हैं।
रिश्ते नाते सब अपने होते हैं।
जिंदगी में सच कहां कहते हैं।
बचपन के नाते अपना घर होता हैं।
मां बाप भाई बहन एक घर में रहते हैं।
न जाने कब अपने पराएं हो जातें हैं।
शायद जर जोरू और जमीन होते हैं।
एक छत एक घर के आंगन में रहते हैं।
बस बढ़े हुए एक दूसरे से अलग होते हैं।
सोच बदलकर देखो अपने ही होते हैं।
बस पराओं को अपना बना देते हैं।
सच तो सदा अपने ही अपने होते हैं।
बस एक अंहम मन का बस रहता हैं।
सच अपने घर से अपने बेघर करते हैं।
तब मरने पर क्यों कंधे को आते हैं।
जिंदगी में जीते जी समझ लेते हैं।
न अपने घर को पराओं में बांटते हैं।
आओ रिश्ते नाते मिलकर समझते हैं।
न अपने घर में गैरों का नाम होते हैं।
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नीरज कुमार अग्रवाल चंदौसी उ.प्र