जगत कथा
///जगत कथा///
जगत-उर के सांध्य तारे,
अनहद नूपुर की थाप सुन।
तम विस्तीर्ण यामिनी के,
साज-चाप के प्रतिसाद गुन।।
पद नुपुर झंकार उर में,
मुझे बिंधती है सदा।
कर मत यहां संताप रे,
प्राण प्रण मनु सर्वदा।।
झन झन बढ़ती पदचापों की,
ध्वनि किस अज्ञात की ओर।
बावरी मैं श्रृंगार लिए हूं,
चली री ले वसन का छोर।।
आज उर में समेट लूं मैं,
सारे गगन का असीम अंतर।
उर दीप सम जलता रहे,
या बन मणि चमक हर प्रहर।।
अज्ञात की पगडंडियां भी हैं,
भीनी भीनी सुरभि से भरी।
पर वक्र क्यों बनती चली तुम,
प्रिय साध्य पथ की सर्व री।।
पार जगत के आस लेकर,
मैं यहां से उड़ चली हूं।
मधुर प्रेम का संदेश लेने,
प्राण लेकर मैं चली हूं।।
प्रिय प्राण मेरे बंधनों का,
आल्हादित हृदय लक्ष्य मय।
चमका गगन के पार स्वयं,
खिलता अन्तर अति हर्ष मय।।
उठता अंतर से कलरव यहां,
भरी प्रेरणा उत्साह की।
भर कर चली मैं पनघटों से,
प्रेम भरकर अथाह की।।
नश्वर तू मन हाय क्यों कर
चलता सदा बंधने वृथा।
कह कर अपनी यह वेदना,
सुना दे जगत से तू कथा।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)