आँगन बुहारती औरतें

अल-सुबह आँगन बुहारती औरतें अक्सर
अक्सर बुहार लिया करती हैं
माथे में उगती चिंताएँ ,
बीते दिन की निराशाएँ ,
अनकही थकान और
उन सपनों की किरचें,
जो रात भर नींद की चादर में
उलझे रहे ।
वे बुहार लेती हैं
मन की दीवारों पर
चिपकी सारी उदासियाँ और
अपने भीतर पसरी सारी खामोशियाँ
पानी के छींटों के साथ अपने दुःखों को गीला करती हैं, और बह जाने देती हैं, जैसे बीते कल की धूल को धरती सोख लेगी, और बदले में थोड़ी ताज़गी दे जाएगी।
गली के मोड़ पर नींद के धागों में
उलझी रात
अभी भी ठहरी होती है,
और ये औरतें—
अपने अंदर से अंधेरा बुहार कर
घर के आँगन में
थोड़ी-सी सुबह रख देती हैं।
फिर वही रोज़ की तरह
संभाल लेती हैं
रसोई, चौका, घर-आँगन,
फिर थाम लेती हैं चूल्हे की गरमी,
और दिन को सुलगाना शुरू कर देती हैं।
— और इस तरह, सिर्फ घर ही नहीं, खुद को भी हर रोज़ बनाती संवारती हैं ये सुबह -सुबह आँगन बुहारती औरतें…