दूर मजदूर
प्रभुजी तुमने ही बनाया ये जग
ये नदियां,ये मैदान और पहाड़।
मैनें तो बस मोड़ी है नदियां
खोदे मैदान और तोड़े पहाड़।
हाँ तुमने ही बनाए पेड़-पौधे
कीट-पतंगे,पशु-पक्षी प्यारे-प्यारे।
मैनें तो बस उगाई फसलें
रेशम,केसर,मधु,घी बनाए सारे।
तुमने बनाई सारी सृष्टि सुंदर
कही पर्वत कही नदिया समंदर।
पर मैनें भी बनाए तेरे लिए मंदिर
पत्थर तराश तुम्हें बिठाया अंदर।
तुम बने ब्रह्मा,विश्वकर्मा,सृजनहार
मैं बना ध्याड़ी मजदूर बंधुवा,बेगार।
पर तुम्हारे भी तो मंदिर दो चार
क्या तुम भी किसी वाद का शिकार?
जब तक तो थे अव अमूर्त तुम
मैंने तराश किया श्रंगार अतिउत्तम।
पर तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा के बाद
मैं रह गया अछूत,अस्पृश्य,असंवाद।
प्रभुजी तुम्हें तो है पूजा जाता
सृष्टि और निर्माण का देवता।
निर्माण के लिए ईट,बजरी-रेता
मैं बस रह गया सिर में ढोता।
न लगी तेरी सृष्टि में कोई कमी
ना ही तो मेरी मेहनत थी थमी।
पर एक क्षुद्र निकृष्ट सोच ने
बाँट दिया ये आसमाँ ये जमीं।
मैं मजदूर हूं क्यों अब दूर रहूं
मजदूर हूं तो क्यों मजबूर रहूं।
चाहे बेशक थक के चूर रहूं
पर नाहक हक से क्यों दूर रहूं।
मेहनत कर कष्ट,संघर्ष सहू
क्यों न श्रम की महत्ता का मर्म कहूं।
~०~
मौलिक एवं स्वरचित : रचना संख्या-१४
जीवनसवारो,मई २०२३.