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30 Dec 2024 · 1 min read

......सबकी अपनी अपनी व्यथा.....

सबकी अपनी अपनी व्यथा,
सबकी अपनी पीर ।
अपनी पीर पहाड़ सम,
यहां दूजे की दिखे नही तकलीफ ।

चोट लगे जिस पांव में ,
दर्द उसी को होय ।
कांटा चुभा न जिसको,
वो जाने दर्द क्या होय।

पैसों के दम पर यहां ,
रहे सुख सुविधाएं खरीद ।
भूखे सोये गरीब की ,
पीर न समझे कोय।

ऐसी कमरे बैठकर,
खाय रहे पकवान।
आधा खाया आधा फेंका ,
कुछ भी नही मलाल।

भीषण सर्दी और गर्मी में
काम करे जो किसान ।
समय पे वर्षा न हुई,
सब कुछ हो गया बेकार

बेमौसम की मार नै
कर दी खेती बेकार
उस किसान की पीर को ,
समझ न पाए कोय ।

सबकी अपनी ढपली है
यहां सबके अपने राग।
दूजे की कोई सुने नही ,
सब अपनी रहे अलाप।

रूबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ

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