नदी स्नान (बाल कविता)
नदी स्नान
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एक दिवस खरगोश हमारा
काला होकर आया
मैंने पूछा रंग कहां से
काला अरे चढ़ाया
वह बोला “नजदीक नदी में
डुबकी एक लगायी
गलती जीवन में पहली की
मुश्किल तब यह आई
वह थी नदी नहीं
वह काला गंदा नाला बहता
कूड़ा करकट सारा मैला
जिसमें आता रहता”
मैंने कहा “अरे बुद्धू !
वह नाला नहीं नदी थी
मेले जैसी भीड़ तटों पर
जिसके रही लदी थी
शुद्ध और निर्मल जल जिसका
सबको पावन करता
सभी पाप धुलते
दो बूंदे जो जिह्वा पर धरता
अब गंगा स्नान साल में
एक बार जब आता
एक दिवस उसमें गिरने से
जहर सिर्फ रुक जाता
रस्म साल में एक दिवस
हम मानव सभी निभाते
उसके बाद नदी फिर नाला
जाकर नहीं नहाते ।
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रचयिता :रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर