बादल की विनती
मैं अनवरत बहता हूँ नभ में,
लेकिन तुमने मुझको धूल बताया।
जिसने जल से जीवन सींचा,
तुमने उसको ही दोषी ठहराया।
कभी घटा बन गीत सुनाया,
कभी झकोरों में लोरी गाया।
तुमने मेरे हर्ष को कुचला,
मुझको केवल ग़म समझाया।
पेड़ कटे, नदियाँ भी सूनी,
धरती पर अब पीड़ा छाई।
फिर भी मुझसे आस लगाए,
बस तुमने अपनी बात बढ़ाई।
मैं बरसूं भी, क्यों बरसूं अब?
जब हरियाली को तुमने मिटाया।
जिस धरा से तुझको नेह नहीं,
उस पर अमृत ही क्यों लुटाया?
सांझ-सवेरा भटक रहा हूँ,
कोई नेह न मुझको भाया।
तेरे लोभ से टूट चुका हूं,
अब ना मेरा मन मुस्काया।
जब तुम लौटोगे सच्चाई पर,
मैं भी लौटूंगा बन अम्बर छाया।
प्रेम अगर फिर धरती बोले,
तो मैं बरसूंगा लेकर संग माया।
© अभिषेक पाण्डेय ‘अभि’