पुकार!
मन में हलचल करती,
नींद से अनायास जगाती,
वो एक ‘पुकार’ रह-रह कर,
क्यों आज भी मुझे बुलाती?
मैंने तो अनजाने में बस यूँ टोका,
भूखा समझ कुछ खाना खिलाया,
उसने क्यों उदास आँखों से नितांत,
मुझे पलट कर दूर तक ताका?
उस मासूमियत में सादगी थी,
और था मुझ पर अटूट विश्वास,
उस चेहरे ने बिना जान-पहचान,
मुझसे प्यारा सा कैसा बंधन बनाया?
बिखरे बाल, साँवली सूरत,
जैसे हो कन्या की कोई मूरत,
भगवती तो सब ने उसे माना,
फिर क्यों संसार ने ही ठुकराया?
ना कोई घर, ना कोई नाम,
जैसे बस हो तन, ना कोई मान,
आत्मा से चीखते उस शरीर ने,
क्यों मेरे कदमों को डगमगाया?
उम्मीद से मेरी आँखों में झांकती आँखे,
जैसे कितनी कहानियाँ कहती हो,
और फिर उस के एक ‘पुकार’ ने,
कितनी बार मुझे नींद से क्यों जगाया?