तुलसी दास जी के
संत कवि तुलसीदास जी प्रभु श्री राम के अनन्य भक्त थे । राम उनके लिए साक्षात् ब्रह्म के अवतार थे और सीता आदि शक्ति ।
उनकी भक्ति में ‘सियाराम मय जगत’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं था ।
दास भक्ति की परंपरा में वे अद्वितीय हैं ।
लेकिन समस्त ग्रंथों में दार्शनिक झाँकियाँ और युक्ति-युक्तपूर्ण भक्ति का मंडन भरा है ।
तुलसीदास जी की समग्र दृष्टि में ज्ञान,भक्ति, कर्म, दर्शन एवं
वैराग्य का सामंजस्य पूर्ण रूप से समाया
हुआ है।
इसीकारण वे राम को समष्टि रूप में लोकनायक का आदर्श रूप दे सके हैं । राम का प्रत्येक संभव रूप मानव जाति के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है ।
राम ईश्वर रूप होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और लोक संग्रह की भावना के प्रतिनिधि हैं ।
तुलसीदास जी के लिए सगुण और निर्गुण व्यर्थ हैं । उनके ही
शब्दों में-:
” जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे।
जनु हिम उपल विलग नहि जैसे ।। ”
उनके नाम और रूप भी ईश्वर तत्व की दो उपाधियाँ मात्र हैं । फिर भी नाम ‘राम’ से बड़ा है ।
” ब्रह्म राम ते नाम बड़, बरदायक बर दानि ।
रामायण शतकोटि महँ, लिय महेश जिय जानि ।।”
तुलसीदास की पहली दृष्टि से मानव जीवन का कोई भी व्यवहारिक पक्ष नहीं छूट पाया है ।
पारिवारिक, सामाजिक,धार्मिक एवं राज-नैतिक जीवन की विविध जटिल परिस्थि-तियों एवं मानसिक व्यापारों का चित्रण उनके ग्रंथों में भरा पड़ा है ।
तुलसी वाह्य एवं अंतर्जगत के सफल कवि हैं । तुलसी के राम करुणानिधि हैं । इसलिए भक्त की पुकार मात्र से उसे क्षमा करना उनकी बान है । राम का नियम एक मात्र समर्पण ही प्रथम् एवं अंतिम कर्तव्य है । राम बिना हेतु करुणागार हैं । जैसे-
” रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।। ”
अत: उपरोक्त समस्त भाव, महाकवि तुलसीदास जी के ग्रंथों में भरे पड़े हैं । जो सिद्ध करते हैं कि वह प्रभु राम के दास्य भाव के पोषक कवि हैं ।
शिवकुमार बर्मन ✍️