“तुम शब्द बन कर आ गये”
तुम्हे ही तो लिख रही थी
कि तुम शब्द बन कर आ गये,
शान्त स्निग्ध नयनों से,
अविराम दृष्टि गड़ाये हुए ,
अक्षरों की ओट से निहारते,
मन के पुलिन तट पर ,
असंख्य स्पन्दित कामनायें,
उल्लसित हो प्रदीप्त हो उठी,
तुम्हे ही तो पढ रही थी,
कि तुम अर्थ बन कर आ गये,
मंद मुदित स्मर स्मिति से,
स्वप्निल स्पृहा बिछाये हुए,
पुस्तक की ओट से निहारते,
जीवन के सुमधुर पल पर ,
कम्पित नादमय संगीत जो ,
बनकर सारंगा सी झूम उठी||
…निधि …