नदी सदृश जीवन
ये वादा था, जीवन का, नदी सदृश बहूंगी मैं।
सदैव गतिमान्, बिना थके साथ चलूँगी मैं।
चंचलता और ठंडक की उदाहरण बनूँगी मैं।
सीमाओं को तोड़ती हुई, अंततः सागर में जा मिलूँगी मैं।
अपनी इच्छा से समतलों का हरण करूँगी मैं।
और शक्ति से किनारों को ग्रहण करूँगी मैं।
अपनी किलकारियों से सूने रास्तों को भरूँगी मैं।
और चाँद की रौशनी को भी प्रतिबिंबित करूँगी मैं।
पर बताना भूल गयी, कि दर्द की परिभाषा भी गढुंगी मैं।
किनारों से छिलती हुई लहू से भी सनूँगी मैं।
नहीं कहा की, मरुभूमि की जलन में तपुंगी मैं।
और तूफ़ानों से थकती हुई भी लडूंगी मैं।
समतलों को छोड़ती हुई उदासी भी सहूँगी मैं।
और अश्रुओं को छिपाती हुई वीरगाथा भी कहूँगी मैं।
नहीं कहा की, अनंत सत्य को परदों में भी रखूंगी मैं।
साग़र बनने की चाह में अस्तित्व को भी फ़ना करूँगी मैं।