‘ इश्क़ ‘
“मोहब्बत में कई आशिक हुए नाकाम बैठे हैं,
तड़पती याद में उनके, लिए पैगाम बैठे हैं,
डगर ये प्रेम की आसां नही,मुश्किल सफर होता,
लौट महबूब की गलियों से खाली हाथ जो आए,
दिल-ए तबाही भुलाने को,लिए वो जाम बैठे हैं,
हदें चाहत की ना जिनकी आशिक है कुछ ऐसे भी,
वो रुसवा हो ना जाए महफ़िलें इश्क में शिरकत से,
लूटा कर हस्तियाँ अपनी वो गुमनाम बैठे हैं,
इज़हारे इश्क करने की खता ना हो निगाहों से,
ज़माने की निगाहों से नज़रें छुपाके बैठें हैं,
इज़हार -ए इश्क की खातिर कई अल्फाज़ सोचे थे,
दीदार -ए महबूबा का होते ही सब भूला के बैठे हैं,
दम खुशियों से ना निकले दिल थाम बैठे हैं,
आगाज़ मुश्किल था मोहब्बत की राहों का
मंज़िल तक पहुँच अपना वो अनज़ाम देखेंगे
किया बदनाम कई बार उन्हें ज़ालिम ज़माने ने,
दिया क्या नाम उनको आज वो नाम देखेंगे,
उसे पाने की ख्वाहिश थी यकीनन दिल ने चाहा था,
हम अपने घर के आँगन में उतरता चांद देखेंगे,
मुद्दतों से इबादत की जो रब से काम आयी हैं,
रज़ा कुदरत की होगी जो मिलन की शाम आयी है,
नजाकत देख जिसकी चाँद भी शरमा के छुप जाए,
खुदा ने फ़ुर्सत में होकर हुस्न की नक्काशियां की है,
मेरे महबूब में रब ने जहां की हर खूबियाँ दी हैं,
ख्वाबों को हकीकत में हम सजा के बैठे हैं,
किस्मत भी होती है यारों आज़मा के बैठे हैं”