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14 Feb 2024 · 1 min read

अगर शमशीर हमने म्यान में रक्खी नहीं होती

ग़ज़ल
अगर शमशीर¹ हमने म्यान में रक्खी नहीं होती
तो हरगिज़ ये तुम्हारी सल्तनत फैली नहीं होती

लुटाकर रौशनी अपनी मुनव्वर² मैं भी तो रहता
अँधेरों ने हवाओं से जो साज़िश की नहीं होती

जुदा रहते नहीं हम साथ रहकर भी किनारों-सा
अना³ की ये नदी गर बीच में बहती नहीं होती

हथौड़े तंज़ के तेरे न मुझ पर चोट यूंँ करते
मेरे अल्फ़ाज़ में ये धार हरगिज़ ही नहीं होती

‘अनीस’ इस घर का आँगन भी तो रहता दोगुना हरदम
अदावत⁴ की खड़ी दीवार हमने की नहीं होती
– अनीस शाह ‘अनीस ‘
1.तलवार 2.प्रकाशित 3.अहम 4.वैमनस्य

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