नर्म लहज़े का कहीं खेल तुम्हारा ही न हो

नर्म लहज़े का कहीं खेल तुम्हारा ही न हो
हम मुसाफ़िर यहाँ क़िस्सा ये हमारा ही न हो
यूँ नहीं खौफ़ में तुझको भी पुकारा ही न हो
दौरे- उल्फ़़त में मिला जैसे किनारा ही न हो
हम भी बेचैन रहा करते थे तन्हाई में
मेरी ज़ानिब तेरा कोई तो इशारा ही न हो
इन ज़मातों में कहीं शोर शराबा ही नहीं
ये फ़टे हाल जियें इनका ग़ुजारा ही न हो
डूब जाती वहीं क़श्ती उसी मझ़धार जहाँ
जब भँवर पास में वाज़िब सा किनारा ही न हो
हम ज़ुदा हो के भी यादों में कभी मिल लेते
तुझको अहसास का मंज़र ये गवारा ही न हो
और मुझको कहीं जी भर के सता लेना कभी
मेरी किस्मत में लिखा कोई सितारा ही न हो
गम की आँधी से बचा लाया हूँ उम्मीद सभी
क्या पता कल यहाँ बैठा तिरा मारा ही न हो
हौसला है तो तबीयत से भी जीना सीखो
जिन्दगी रोज महरबान दुबारा ही न हो
# सुशील यादव दुर्ग