अपूर्ण

प्रश्न और तो नहीं मुझे परन्तु चाह एक,
जो सुनो, कहूँ विषाद, दुःख, कामना सभी।
जो सुनो कहूँ अमोल अश्रुओं का घोर नाद,
प्रेम में बही यहाँ अथाह प्रीत की नदी।।
चाह एक ही मुझे, कहूँ तुम्हें हृदै कि बात,
वो, कहूँ अनन्य पीर, मैं जिसे लिए फिरी।
रात-रात मैं रही विषाद, वेदना सँजोय,
और डूबती गयी अथाह क्षोभ में घिरी।।
मैं इसी विचार में निमग्न सोचती रही, कि,
बोल दूँ दबी हुई, पुकार लूँ तुम्हें अभी।
किंतु ये न हो सका, मिला मुझे यही वियोग,
और यूँ दबे रहे अपूर्ण स्वप्न वो सभी।।
मैं इसी विचार में निमग्न सोचती रही, कि,
क्या हुआ, अपूर्ण स्वप्न हैं, अपूर्ण कामना।
क्या हुआ अपूर्ण प्रश्न हैं यदी, अपूर्ण चाह,
क्या हुआ अपूर्ण मैं हुई, अपूर्ण तू हुआ।।
क्या हुआ अपूर्ण विश्व है, अपूर्ण है समस्त,
है यही जगद् कि रीत, हो अपूर्ण ही सभी।
है यही जगद् कि रीत, हो अपूर्ण ही मनुष्य,
औ’ यही जगद् कि चाह, मैं रहूँ अपूर्ण ही।।