मां-बेटी संवाद
कल बेटी ने कहा, मां तुम क्या करती हो,
खाना रोज एक-सा ही, क्यों तुम बनाती हो..
समझ न आया क्या जवाब दूं, अपनी लाडली को,
हंसकर कहा, जिम्मेदारियां बहुत ही है निभाने को।
वो बोली मां दादी भी यही कहती है,
इस उमर में भी दादी बहुत कुछ सहती है।
अपना खाना भी वो खुद आप ही बनाती है,
तुम्हारे भरोसे एक पल भी नहीं बैठती है।
यह सुनते ही दर्द आंखों में झलक आया था,
थक कर चूर थी, दर्द नस-नस में समाया था।
सोचती हूं और क्या मैं, कर ही सकती हूं,
प्राय: रोज ही सुबह, चार बजे उठती हूं,
चूल्हा चौका का काम, सारे मैं निपटाकर,
अपने विद्यालय साढ़े सात, में निकलती हूं।
थक के चूर जब मैं, घर को वापस आती हूं,
कुछ देर बाद ही, ट्यूशन में उलझ जाती हूं।
कहां है दोष मेरा, तुम्हीं ही बताओ बेटी,
तुम समझदार हो, उपाय कोई सुझाओ बेटी।
वो चुप थी किंतु, मैं बेचैन हो गई,
शिकायत बेटी की लाख सवालों को छोड़ गई।
करवटें बदल- बदल रात बिताया मैने,
सवाल हरपल ही था, मेरे मन, को घेरे।
चाहे बेटी रहूं, बहन रहूं या बहू ही सही,
सभी दायित्व तो अकेला, सिर्फ मेरा नहीं।
थककर मेरे पतिदेव जब, घर को आते हैं,
सोफे पर लेट कर मोबाइल ही चलाते हैं।
शिकायत नहीं सासु माँ को, अपने बेटे से,
समस्या उनको है सिर्फ, मेरे आराम करने से।
जीवन बर्बाद किया औरतों ने औरतों का,
उठाना फायदा उन्हें मर्दों की शोहरत का।
परंपरा उनको तो पुरानी ही चलानी यारों,
बहुओं से उन्हें रोटियां ही बनवानी यारों।
कहते है ये हरदम बातें बड़ी-बड़ी
सुनाने को तैयार रहते खड़ी-खोटी।
बेचैन मन पूछता, एक सवाल उनसे,
आपत्ति क्या है बहुओं के, आगे बढ़ने से।
गीत के बोल(तर्ज) – “बस यही बात जमाने को बुरी लगती है।”
हास्य किंतु करुण प्रसंग 🥺