2122 1122 1122 22

2122 1122 1122 22
रात भर उनको कभी याद किया करते थे
सब्र के हाथ में तक़दीर दिया करते थे
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हौसलों में कमी कोई नहीं थी लेकिन हम
ज़िँदगी की फ़टी चादर ही सिया करते थे
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वक़्त की बे- दिली हमने यहां पर है देखी
ज़िक्र उसका ही सरे- आम किया करते थे
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हाथ तलवार मगर धार पुरानी लगती
ज़ंग लड़ते ज़रा तो लोग हँसा करते थे
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बेवफ़ाई कभी क़िश्तों में अगर की होती
ये ज़माना भी कहा होता वफ़ा करते थे
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तुझको बेइंतिहा चाहत ये अख़र जाएगी
एक हम ही थे तिरे नाम ज़िया करते थे
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नाव क़ाग़ज़ की जहाँ डूबती थी बचपन में
हम अभी तक उसी जंगल में फिरा करते थे
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सुशील यादव दुर्ग (छ.ग.)
7000226712