जो रोज़ मेरे दिल को दुखाने में रह गया
जो रोज़ मेरे दिल को दुखाने में रह गया
मैं जान-ओ-दिल उसी पे लुटाने में रह गया
भरपूर ले रहे हैं ज़माने का लुत्फ़ लोग
मैं जिंदगी का बोझ उठाने में रह गया
झूठा था उसको दोस्त भी मिलते चले गए
सच बोलकर मैं बैर बढ़ाने में रह गया
खुद में उतर के गौर से देखा नहीं कभी
बस आइनों की धूल हटाने में रह गया
‘आकाश’ चल के पा गया मंजिल कोई मगर
कोई महज़ हुनर ही दिखाने में रह गया
ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी
दिनांक- 21/03/2025