अनुगामी

लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त –
स्थान – दिल्ली –
विषय – रसिक
विधा – स्वछंद काव्य – पद्य
शीर्षक – अनुगामी
उम्मीदों को दिल में ज़िन्दा रखना पड़ता है।
मन , मस्तिष्क से रसिक बनो तन को रखो निर्मल।
ऐसा जीवन निर्वाह सामाजिक जीवन जीना पड़ता है।
बहुत हुआ अब प्रदर्शन , सुंदर है यदि आपका दिल।
दिल को छू लेने वाली रचना कर – कर के , समीक्षकों को
सक्रीय रखना पड़ता है।
बहुत अच्छी लगी जो रचना , खुल के कहना वाह – वाह ,
यही प्राकृतिक आचरण , व्यवहार में रखना पड़ता है।
हम तुम इस विशाल ब्रह्माण्ड में एक तृण के समान।
उस रचनाकार की अनुपम कृति , मानो उसका उपकार।
पल – पल उसके चरणों में प्रणाम करना पड़ता है।
कार्य की उन्नति हेतु बन जाना तुम रसिक।
आचरण की प्रशस्ति हेतु बन जाना तुम पथिक।
यायावरी धारण करो बुद्ध के अनुगामी बनो।
धैर्य धारण करके पौरुष के प्रतिभागी बनो।
इन सबका यदि करना रसपान चाहते , दिल को,
छू लेने वाली रचना कर – कर के , समीक्षकों को
आनंदित करना पड़ता है।
आधिकारिक परिवेश छोड़ दो , आलस्य का उन्माद छोड़ दो।
मेरा तेरा बहुत हुआ अब , प्रेम प्यार की राह पकड़ लो।
उम्मीदों को दिल में ज़िन्दा रखना पड़ता है।
मन , मस्तिष्क से रसिक बनो तन को रखो निर्मल।
ऐसा जीवन निर्वाह सामाजिक जीवन में लाना पड़ता है।
©️®️