नीरव गीता
///नीरव गीता///
मेरे सहज ही गान चंचल,
ढूंढते रहे जो साम्य अंचल।
तेरी शरण ही आज लूंगी,
ले लो मुझे हे शांत अविरल।।
जल रहा निरंतर दीप यह,
इसकी सहज ज्वाल माला।
गगन की वह अनंत आभा,
विलय होती उष्ण ज्वाला।।
क्यों न तेरी उष्णता में,
मैं सकल बांधू प्रीत रे।
है मेरे मनोदय विरचित,
चंचल विकल ये गीत रे।।
विश्व के आरोह पथ पर,
चल सदा मैं साध्य पाऊं।
त्याग सारे बंधनों को,
अविरल नीरव गान गाऊं।।
विकल ज्वाला जल सहज ,
मैं तुम ही में खो जाऊंगी।
हे अनंत अन्तर परम प्राण,
सुगीत गीता नीरव गाऊंगी।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट(मध्य प्रदेश)