अपने नियमों और प्राथमिकताओं को बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित क
ग़ज़ल _ शौक़ बढ़ता ही गया ।
कुंभकार
PRATIBHA ARYA (प्रतिभा आर्य )
यही सोचकर आँखें मूँद लेता हूँ कि.. कोई थी अपनी जों मुझे अपना
कब तक छुपाकर रखोगे मेरे नाम को
शुभ संकेत जग ज़हान भारती🙏
अक्सर तुट जाती हैं खामोशी ...
बड़ी मादक होती है ब्रज की होली
"ना कृष्णा ना राम मिलेंगे"
ग़ज़ल(चलो हम करें फिर मुहब्ब्त की बातें)
बाण मां के दोहे
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
चैत्र प्रतिपदा फिर आई है, वसुधा फूली नही समाई है ।
आकांक्षा पत्रिका समीक्षा
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
దేవత స్వరూపం గో మాత
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
राह में मिला कोई तो ठहर गई मैं