पर्वों की सार्थकता
भारत पर्वो का देश है जहाँ हर आने वाला दिन किसी ना किसी रूप में अपने आप में इतिहास समेटे अपना अलग महत्वपूर्ण स्थान रखता है साथ ही अपने आगमन के साथ-साथ समाज एवं राष्ट्र को नई गति, प्रेरणा, मार्गदर्शन और ऊर्जा देने का विशेष कार्य पर्व करते है किन्तु विडंबना है कि बदलते समय और माहौल के चलते अब इन पर्वो की परिभाषा भी परिवर्तित होने लगी है। आज से वर्षो पूर्व या पुरातन काल में जिन पर्वो का जन्म समाज एवं राष्ट्र कल्याण के लिए हुआ था वे पर्व चाहे राष्ट्रीय हो या सामाजिक धार्मिक हो या सांस्कृतिक, ऐतिहासिक हो या अन्य कोई भी, इन सबका अर्थ बदलकर महज औपचारिकता पूर्ति तक सीमित रह गया है। राष्ट्र और समाज की संस्कृति, आस्था, विश्वास, भक्ति-शक्ति के परिचायक इतिहास की धरोहर इन पर्वो की निरन्तर बदलती तस्वीर और पश्चिमी देशों की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव ने पर्वो को नाम मात्र के लिए ही जीवित रखा है जबकि पर्व राष्ट्र की संस्कृति की बुनियाद और सभ्य समाज के निर्माण का आधार होते है लेकिन, पर्वो की सार्थकता तभी होती है जब उनके नियमों तथा आदर्शो को भली भांति जानकर उनका पालन करें, तभी हमारे द्वारा पर्वो को मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी जो राष्ट्र एवं समाज के नव निर्माण के लिए हमारी एक महत्वपूर्ण सेवा होगी।
• विशाल शुक्ल