*सृष्टि-चक्र (राधेश्यामी छंद)*

सृष्टि-चक्र (राधेश्यामी छंद)
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
1)
कब से विराट धरती यह है, कितने यह वर्ष पुरानी है।
कब से मानव-उत्पत्ति हुई, कब से यह मरण-कहानी है।।
2)
मन मंथन करता सोच-सोच, प्रभु ने क्यों सृष्टि बनाई है।
क्यों आयु रखी सौ वर्ष मनुज, क्या इस में कुछ अच्छाई है।।
3)
सौ वर्ष मनुज जीता जीवन, सौ वर्ष कला दिखलाता है।
जब बीत गए सौ वर्ष पूर्ण, धरती से मानव जाता है।।
4)
कितने ही आए धरती पर, कितने ही आकर चले गए।
जाना सबके ही भाग्य लिखा, कुछ बुरे गए कुछ भले गए।।
5)
जो गया धरा से फिर उसका, कुछ पता नहीं चल पाता है।
यह ज्ञात किसे मानव मरकर, किस अन्य लोक को जाता है।।
6)
कुछ कहते हैं केवल शरीर, यह मरकर सब मिट जाएगा।
कुछ कहते मरण न अंत कहो, फिर पुनर्जन्म तन पाएगा।।
7)
यह पुनर्जन्म है जटिल बहुत, यह आवागमन बताता है।
यह भाग्य-कर्म का सम्मिश्रण, सुनकर दिमाग चकराता है ।।
8)
यह पुनर्जन्म का कटु रहस्य, आत्मा शाश्वत को गाता है।
यह आत्मा है सबसे अमूल्य, दुर्लभ ही इसका ज्ञाता है।।
9)
तन में रहता है आत्मतत्व, लेकिन किसने यह पहचाना।
बूढ़ा हो गया मनुज लेकिन, तन में दुर्लभ को कब जाना।।
10)
कुछ ध्यानयोग के साधकगण, आत्मा का पता लगाते हैं।
दुर्लभ हैं ऐसे ध्यानीजन, जो आत्मतत्व को पाते हैं।।
11)
जग में रहने की कला संत, सब अनासक्ति बतलाते हैं।
जग में तो रहो मगर जग से, दूरी रखना सिखलाते हैं।।
12)
हो मोह नहीं किंचित जग से, अधिकार नहीं इस पर करना।
संग्रह कर कभी वस्तुओं का, निज का भंडार नहीं भरना।।
13)
थोड़ा ही भोग करो जग का, शोषण से बचो जरूरी है।
वह साधु जगत में उत्तम है, जिसकी संग्रह से दूरी है।।
14)
इस तरह जगत् जैसा पाओ, वैसा ही छोड़ चले जाओ।
जो नए लोग आऍंगे अब, उनके हित जग को चमकाओ।।
15)
यह चक्र चल रहा जन्म-मरण, चक्कर चलता यह जाएगा।
पानी बहता ज्यों नदियों में, यों काल समय को खाएगा।।
16)
इसलिए शांत हो संयम रख, कुछ पाना ना कुछ खोना है।
समझो सब खुशियॉं नाशवान, सब व्यर्थ जगत् में रोना है।।
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
रचयिता: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451