बंदरों का उत्पात

बंदरों का उत्पात यही है,
नगर गांव में टोली लेकर,
चक्कर काटे बन कर एक बॉस,
उछल कूद मचाए ये रोज।
पेड़ों को देख घेरा भी डाले,
डाली डाली में कब्जा जमा ले,
छुप छुप के कूके आवाज निकले,
झूल झूल के टहनियाँ तोड़ डाले।
भूखे प्यासे दर दर भटके,
छिना है आवास वन था खास,
घर घर में घुस घुस कर भी डांटे ,
आहार उठाए चट पट भागे।
खूब चिढ़ाए जो डंडा है दिखाए,
कभी कभी दांत दिखा कर खिसियाए,
सर्कस की भांति कर्तव्य भी दिखाए,
तमाशा किए बिना बाज न आए।
रचनाकार
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर।